मंगलवार, 16 मार्च 2010

कांग्रेस की डूबती नैय्या का कौन बनेगा खेवैय्या

- नरेश सोनी -
दुर्ग। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष और बुजुर्ग नेता मोतीलाल वोरा के गृहजिले में कांग्रेस की नैय्या लगभग डूब चुकी है। शहर ही नहीं, पूरे जिले का बुरा हाल है। पार्टी को यहां से अतिम बार चंदूलाल चंद्राकर के रूप में सांसद मिला था, लेकिन उसके बाद से भाजपा ने इस संसदीय सीट पर ऐसी सेंध लगाई कि कांग्रेस अब तक उबर नहीं पाई है।
सिर्फ संसदीय चुनाव ही नहीं, जिले के बहुधा विधानसभा क्षेत्रों में भी उसका प्रदर्शन क्रमश: कमजोर होता चला गया। पार्टी ने भी कभी चिंता नहीं की और वोरा पर छोड़ दिया। वोरा ने पुत्र मोह में आंखों पर पट्टी बांध ली। उनके पुत्र अरूण वोरा 95 के विधानसभा चुनाव में दुर्ग से विधायक बने और तभी से मोतीलाल वोरा उन्हें अपनी विरासत सौंपने आमादा है। अरूण वोरा दुर्ग से लगातार तीन विधानसभा चुनाव हार चुके हैं। और आखिरी बार की अपनी चुनावी पराजय के बाद वे शहर कांग्रेस के स्वयंभू अध्यक्ष बने बैठे हैं। शहर संगठन पूरी तरह निर्जीव है। अरूण वोरा के अलावा भी संगठन में कोई पदाधिकारी है, यह किसी को नहीं पता।
यह अरूण वोरा की ही पहल थी कि जिला कांग्रेस के दिग्गज नेता दाऊ वासुदेव चंद्राकर के निधन के बाद उन्होंने अपने पिट्ठू के रूप में पूर्व विधायक घनाराम साहू को जिले की कमान सौंप दी। साहू, वोरा परिवार के प्रति इतने वफादार निकले कि राजनीतिक दृष्टि से स्वयं से कम अनुभवी अरूण वोरा के पिछलग्गू होकर रह गए। हालात इतने खराब हुए कि ग्रामीण क्षेत्रों के कार्यकर्ता यह सवाल पूछने लगे कि घनाराम साहू दुर्ग शहर तक सीमित क्यों हैं? आज तक उनकी अगुवाई में कोई बड़ा आंदोलन नहीं हो पाया। जिले के कांग्रेसी अलग-थलग पड़े हैं और उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। चुनाव के वक्त जरूर उनकी पूछपरख की जाती है। पांच साल तक घर बैठने वाले कार्यकर्ता आखिर क्या खाकर कांग्रेस को जितवाएगा?
बहरहाल, घनाराम साहू के अध्यक्ष बनते ही अरूण वोरा के हाथ में शहर के साथ ही जिला कांग्रेस की कमान भी आ गई और वे अपने तरीके से कांग्रेस का संचालन करने लगे। लेकिन जब से ऐसे हालात निर्मित होने शुरू हुए, कांग्रेस का पतन प्रारम्भ हो गया। फिलहाल कांग्रेस के संगठन चुनाव चल रहे हैं। एनएसयूआई के हो चुके हैं और युवक कांग्रेस के चुनाव होने हैं। इसके लिए दिल्ली से तय किए गए पर्यवेक्षक अपना काम कर रहे हैं। इन पर्यवेक्षकों के अलावा स्थानीय स्तर पर कोई पर्यवेक्षक नहीं बनाए जा सकते। संगठन चुनाव में स्थानीय नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, किन्तु बतौर शहर कांग्रेस अध्यक्ष अरूण वोरा ने अपने दो खास समर्थकों को पर्यवेक्षक बनाकर बिठा दिया है। दरअसल, कांग्रेस के भीतर अरूण वोरा का इतना ज्यादा विरोध है, यह कतई संभव नहीं कि वे शहर अध्यक्ष का चुनाव लड़ें और जीत जाएं। इसलिए उन्होंने अपनी पैतरेबाजी शुरू कर दी है।
निर्णय लेने की अक्षमता
अरूण वोरा के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे फौरी तौर पर कोई निर्णय नहीं ले पाते। जब कभी भी ऐसी कोई स्थिति बनती है, वे बाबूजी (मोतीलाल वोरा) से पूछकर बताने की बात कहते हैं। खुद कांग्रेसी यह सवाल पूछते फिरते हैं कि जब सब कुछ बाबूजी ने ही बताना है तो फिर तुम्हारा खुद का क्या काम है?
कागज में कांग्रेस
शहर और जिले में कांग्रेस का पूरा कामकाज कागजों में चल रहा है। महापुरूषों, वरिष्ठ नेताओं की जयंती या पुण्यतिथि मनाने की जानकारी महज प्रेस विज्ञप्तियों के माध्यम से ही होती है और इसके अलावा कोई काम नहीं किया जाता। शहर कांग्रेस ने कभी कोई बड़ा आंदोलन नहीं किया। नगर निगम में बड़े पैमाने पर अव्यवस्था है। पूरे 10 सालों तक व्यापक भ्रष्टाचार हुआ, लेकिन कांग्रेस की ओर से किसी तरह की आवाज सुनाई नहीं दी।
भाजपा सांसद के साथ टाईअप?
पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से अरूण वोरा और भाजपा से उनके चिर परिचित प्रतिद्वंद्वी हेमचंद यादव आमने सामने थे। तब नगर निगम में महापौर पद पर सरोज पाण्डेय विराजमान थी, जो हेमचंद यादव की राजनीतिक प्रतिस्पर्धी थीं। दुर्ग से स्वयं टिकट की दावेदार होने और पार्टी द्वारा उन्हें दीगर क्षेत्र से विधानसभा का टिकट देने की वजह से सरोज पाण्डेय और हेमचंद यादव के बीच खटास पैदा हुई। इसी दौरान सरोज पाण्डेय और अरूण वोरा के बीच टाईअप हो गया। भाजपा प्रत्याशी को हरवाने हरसंभव प्रयास किया गया। बावजूद इसके हेमचंद यादव जीत गए और दुबारा केबिनेट मंत्री बने। तभी से अरूण वोरा और सरोज पाण्डेय के अच्छे संबंधों की चर्चा होती रहती है। मजे की बात यह है कि पार्टी लाइन से अलग जाकर समझौता करने वाले अरूण वोरा और पार्टी के खिलाफ काम करने वाली सरोज पाण्डेय दोनों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। दोनों अपने अपने दलों की किसी तरह की कार्यवाही से बच गए।

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