गुरुवार, 13 मई 2010

आम आदमी से दूर होता सरकारी अस्पताल

दुर्ग, 13 मई। जिला चिकित्सालय के प्रबंधन पर पहुंच वालों का कब्जा हो गया है जिस मरीज की पहुंच नहीं है उसका असमय मर जाना निश्चित है। ईश्वर का दर्जा हासिल करने वाले डाक्टर भी उसी मरीज की विशेष देखभाल करते है जो उनकी निजी क्लीनिक में भी ईलाज कराता है। नाशते एवं भोजन के नाम पर मरीजों को जानवरों से भी बदत्तर सामाग्री दी जाती है। एक्सरे एवं अन्य प्रकार का टेस्ट की शासकीय दर से अधिक की वसूली की जाती है। अस्पताल में भर्ती मरीजों के परिजनों को रात में बाहर कर दिया जाता है जिससे उन्हें कीट पतंगे वाले पेड़ों के नीचे रात बितानी पड़ती है। अस्पताल में दवाई रहने के बावजूद कमीशन के लालच में बाहर से दवाईयां मंगाई जाती है।

गौरतलब है कि जिला चिकित्सालय की छवि एक ऐसी अस्पताल बना दी गई है जिसमें ईलाज कराने के नाम पर आम आदमी सहम जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि पहुंच वाले मरीजों के लिए यह अस्पताल किसी अपोलों हास्पिटल  से कम नहीं है। यहां पदस्थ डाक्टर अपने पेशे से कितना इंसाफ करते है यह बात इसी तथ्य से साबित हो जाती है कि जो मरीज उनके क्लीनिक में  भी ईलाज करा चुका है उसे वे वीआईपी ट्रीटमेंट देते है। इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार की ओर से मिलने वाले वेतन से डाक्टरों का खर्च नही चलता बल्कि वे सरकारी अस्पताल से ज्यादा समय अपनी क्लीनिक में बैठ कर आए हुए मरीजों का ईलाज करने में व्यतीत करते है। जब इसी मरीज को भर्ती करने की नौबत आए तो वे वार्ड ब्वाय एवं नर्सों को निर्देशित कर उसे पेईगं रूम में भर्ती कर विशेष श्रेणी के तहत ईलाज करते है। सामान्य मरीज तो सामान्य वार्ड में ही भर्ती रहकर  ईलाज कराने के लिए मजबूर होता है जहां उसे काली-पीली दवा देकर बांह में ग्लूकोज की बोतल लटकाकर मौत की प्रतीक्षा में छोड़ दिया जाता है।

जिला अस्पताल में नाश्ते एवं भोजन के नाम पर जो सामग्री आमतौर पर मरीजों को दी जाती है उसे देखकर मरीज और भी बीमार पड़ जाता है। अस्पताल मीनू के अनुसार असाध्य रोगों से पीडि़त मरीजों को नाश्ते अथवा दोपहर के भोजन में अण्डा अथवा मछली दिया जाना जरूरी है परन्तु यहां सिर्फ पहुंच वाले रोगियों को ही यह सुविधा दी जाती है। सामान्य रोगी को नाश्ते में केवल चाय एवं दोपहर व रात के भोजन में दाल चावल पर निर्भर रहना पड़ता है। दाले मंहगी होने पर सब्जी में कुमड़ा, लौकी या पत्ता गोभी की अधपक्की सब्जी दी जाती है। दूध,फल, अण्डा, ब्रेड का नाम तो केवल मीनू में ही रहता है। यह भी जानकारी मिली है कि एक्सरे का निर्धारित मूल्य 75 रूपए है पर एक्सरे फिल्म मंगाने के  नाम पर 100 रूपयों की वसूली की जाती है। बताया जाता है कि कई जीवन रक्षक दवाईयां जिनका नियमानुसार स्टाक रखा जाता है उन्हें भी बाहर से सिर्फ इसलिए मंगाया जाता है क्योंकि उसमें भी डाक्टरों का कमीशन निश्चित रहता है। एक तरह से सरकारी अस्पताल आम आदमी की पहुंच से दूर होता दिखाई दे रहा है।

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