रविवार, 2 मई 2010

मालिक बन गए खेतिहर मजदूर

दुर्ग, 02 मई। बदलते वक्त के साथ ग्रामीण समाज की अवधारणा तेजी से बदल गई है। हाल के ढाई दशकों के तुफानी दौर ने ग्रामीण मजदूरों की स्थिति आमूलचूल रूप से बदल कर रख दिया है। छत्तीसगढ़ के अधिकांश गांवों में अब स्थानीय खेतिहर ग्रामीणों का वजूद मजदूरों का नहीं रह गया है। गांवों  में अब ढूंढने पर भी कृषि मजदूर नहीं मिल रहे। मालिकों के यहां पारंपरिक रूप से सलाना दर पर मजदूरी (नौकर) करने वाले नहीं मिल रहे हैँ। अलबत्ता,  इनमें से अधिकांश खेतिहर मजदूर अब दूसरों के यहां मजदूरी करने के बजाए जमीन मालिकों से रेघ अथवा अधिया में जमीन लेकर खेती कर रहे हैँ। बदलाव की यह बयार सुखद तो है मगर सालों से बड़े स्तर पर खेती करते रहे पारंपरिक किसान अब मजदूर नहीं मिलने की वजह से कृषि कार्य से विमुख हो गए हैँ। छत्तीसगढ़ के गांवों में बहने वाली हवा ऊपरी तौर पर भले ही समाजवाद की झलक दिखाती है, मगर इसकी गहरायी में जाने पर यूं प्रतीत होता है कि विकास की इस धारा में कहीं बड़ी चूक हो गई है। 

दुर्ग जिले के ग्राम मटंग (पाटन) निवासी गोवर्धन साहू बताते हैं कि अब उनके गांव में किसी भी मालिक के यहां कोई नौकर नहीं रह गया है। 20 बरस पहले गांव के बड़े किसान एक-दो या तीन-तीन नौकर वार्षिक दर पर रखते थे। किंतु वर्तमान में यह स्थिति एकदम बदल गई है। गांव में अब कोई श्रमिक साल भर के लिए नौकर बनने के बजाए स्वतंत्र रूप से जीवन-यापन करना चाहते हैँ। यहां तक खेती-किसानी के दिन में अस्थाई रूप से मजदूरी करने वाले भी बड़ी मुश्किल से मिल पाते हैँ। निर्धन तबके की नई पीढ़ी अंगुठा छाप भी नहीं है। अपने बाप-दादा की तरह गांव के बड़े किसानों के यहंा बनिहारी करने के बजाए आसपास के फैक्टरी उन्हें ज्यादा आकर्षित करते हैँ।

ग्राम कसही के किसान लेखराम वर्मा कहते हैं कि पहले की तरह खेती करना आज संभव नहीं रह गया है। कामगारों की दिक्कत बड़ी परेशानी है। इन्हीं सब परेशानियों से बचने की गरज से पिछले चार साल से वह खुद खेती करने के बजाए अपनी जमीन रेघ (ठेका)पर दे देता है। वार्षिक ठेके पर देने से  फसल में होने वाले लाभ का एक चौथाई हिस्सा बिना कुछ किए मिल जाता है।  ग्राम मर्रा (गाड़ाडीह) के किसान रजनीश मिश्रा भी गत तीन सालों से खेती कार्य छोड़ चुके हैँ। उनका कहना है कि खेती-किसानी आज तनाव का सबब बन गया है। कृषि में व्यवसाईकता इतनी हावी हो गई है कि गांव के औसत दर्जे के किसान इसमें टिक नहीं पा रहे हैं।

बेरला ब्लाक के ग्राम तारालीम में 35 एकड़ की जमीन पर पांच साल से खेती कर रहे शिक्षित किसान कौशल तिवारी के मुताबिक हरियाणवी जाट व मारवाडिय़ों   ने पारंपरिक ग्रामीण कृषि पर सेंध मारकर स्थिति खराब कर दी है। 50 से सौ एकड़ के फार्म हाऊस पर आधुनिक ढंग से खेती कर रहे बाहरी किसानों ने स्थानीय किसानों की हवा गोल कर दी है। जरूरत पडऩे पर यूपी, बिहार व हरियाणा के बड़े किसान खेतिहर मजदूर भी बाहर से ले आते हैँ। यदि आप जिला मुख्यालय से 50-60 किलोमीटर के फासले पर अवस्थित कृषि जमीनों का अवलोकन करेंगे तो पाएंगे कि लगभग आधी कृषि जमीनों पर बाहरी लोगों का कब्जा हो गया है। जबकि दूसरी ओर गांव के स्थानीय कृषक अपने खेतों से लगातार दूर होते जा रहे हैँ।
 
महंगी पड़ेगी यह खामोशी

देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो गया, मगर गांवों के सैकड़ों बाल मजदूर बाहर से आए दबंग किसानों की बाड़ी, फार्म हाऊस एवं घरों में शोषण का बदस्तूर शिकार हो रहे हैँ। बड़ी बाडिय़ों एवं फार्म हाऊस के जानकार सूत्र बताते हैँ कि स्थानीय गांवों से जाने वाली किशोरियों व महिला मजदूरों के साथ वहां गलत ढंग का व्यवहार होता है। बाहरी किसानों की दबंगता के चलते ग्रामीण मजदूर सब कुछ खामोशी से सहन कर लेता है। दूसरी ओर यह भी हैरत का विषय है कि गांव की छोटी-छोटी बातों पर पंचायत की बैठक बुला लेने वाले ग्रामीण व ग्रामीण नेतृत्व इतने बड़े मुद्दे पर क्यों खामोशी अख्तियार कर लेता है।

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